जब दिशोम गुरु ने अंतिम सांस ली: शिबू सोरेन की कहानी जो हर भारतीय को जाननी चाहिए

सोमवार की सुबह 8:56 बजे जब दिल्ली के सर गंगा राम अस्पताल से खबर आई कि शिबू सोरेन नहीं रहे, तो मुझे लगा जैसे भारतीय राजनीति का एक युग समाप्त हो गया। मैं पिछले बीस साल से झारखंड की राजनीति को देख रहा हूं, लेकिन आज महसूस हुआ कि एक ऐसा नेता चला गया जिसके बिना झारखंड की कल्पना करना असंभव है।

81 साल की उम्र में उनकी मृत्यु सिर्फ एक व्यक्ति का जाना नहीं है—यह उस संघर्ष का अंत है जिसने करोड़ों आदिवासियों को आवाज दी, उन्हें सम्मान दिलाया, और उनके लिए एक पूरा राज्य बनवाया।

वह आदमी जिसने पहाड़ों से दिल्ली तक का सफर तय किया

रामगढ़ की पहाड़ियों से शुरुआत

1944 में तत्कालीन बिहार के रामगढ़ जिले में जन्मे शिबू सोरेन का बचपन उन्हीं पहाड़ियों में बीता जहां आज झारखंड के मुख्यमंत्री का निवास है। संथाल समुदाय में जन्मे इस व्यक्ति की कहानी किसी फिल्मी स्क्रिप्ट से कम नहीं लगती।

मुझे याद है जब मैं बचपन में उनके भाषण टेलीविजन पर देखता था। उनकी आवाज में एक अजीब सा जादू था। वे चिल्लाकर नहीं बोलते थे, लेकिन जब बोलते थे तो पूरा देश सुनता था। आज जब न्यूज चैनल उन्हीं भाषणों को दोहरा रहे हैं, तो एहसास होता है कि कितना बड़ा खालीपन पैदा हो गया है।

1972: जब एक आंदोलन की नींव रखी गई

जब 1972 में उन्होंने ए.के. रॉय और बिनोद बिहारी महतो के साथ मिलकर झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना की, तो किसी ने नहीं सोचा था कि यह छोटा सा संगठन भारत के नक्शे को बदल देगा। यह सिर्फ राजनीतिक पार्टी नहीं थी—यह था आदिवासी अस्मिता की आवाज़।

मैंने उस दौर के बुजुर्गों से बात की है। वे बताते हैं कि शिबू सोरेन के आने से पहले आदिवासी समुदाय खुद को हाशिए पर महसूस करता था। उनकी भाषा, उनकी संस्कृति, उनके अधिकार—सब कुछ दबा दिया जाता था। शिबू दा ने (झारखंड में लोग उन्हें प्यार से शिबू दा कहते थे) इस सब को बदल दिया।

झारखंड के निर्माता: जब सपना हकीकत बना

28 साल का लंबा संघर्ष

शिबू सोरेन की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि वे समझते थे—सच्चा नेतृत्व बड़े-बड़े वादों में नहीं, बल्कि धैर्य और निरंतर संघर्ष में होता है। लगभग तीन दशक तक उन्होंने अलग झारखंड राज्य का सपना देखा और उसके लिए लड़ते रहे।

राजनीतिक उथल-पुथल हुई, सरकारें बदलीं, गठबंधन टूटे-जुड़े, व्यक्तिगत संकट आए, लेकिन उनका विजन कभी नहीं बदला। 2000 में जब झारखंड भारत का 28वां राज्य बना, तो यह सिर्फ एक राजनीतिक जीत नहीं थी—यह था भारत की आदिवासी जनता की आवाज़ की जीत।

उस दिन मैं रांची में था। शहर में जो खुशी का माहौल था, वह अविस्मरणीय है। लोग सड़कों पर नाच रहे थे, ढोल बज रहे थे। लेकिन सबसे खुश शिबू सोरेन नहीं लग रहे थे। वे जानते थे कि राज्य बनना तो शुरुआत है, असली काम अब शुरू होगा।

राजनीतिक जीवन की उतार-चढ़ाव भरी कहानी

वह मुख्यमंत्री जो कभी पूरा कार्यकाल नहीं कर सके

शिबू सोरेन तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने, लेकिन कभी पूरा कार्यकाल नहीं कर सके। यह उनकी अक्षमता का नहीं, बल्कि झारखंड की जटिल गठबंधन राजनीति का प्रमाण था।

2005 में उनका पहला कार्यकाल सिर्फ नौ दिन चला क्योंकि वे फ्लोर टेस्ट में असफल हो गए। कई लोग हतोत्साहित हो जाते, लेकिन शिबू दा ने इसे भी संघर्ष का हिस्सा माना। संकट के सामने उनका धैर्य किंवदंती बन गया—एक ऐसा गुण जो उनके समर्थकों को प्रिय था क्योंकि वे समझते थे कि उनका नेता उनके दैनिक संघर्षों को समझता है।

केंद्रीय मंत्री की परीक्षाएं

2004 में जब वे मनमोहन सिंह सरकार में शामिल हुए, तो लगा कि आदिवासी राजनीति को केंद्र में जगह मिल गई। लेकिन 1974 के चिरुडीह केस में गिरफ्तारी वारंट के कारण उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। जमानत पर छूटने के बाद दोबारा शामिल हुए, फिर झारखंड के मुख्यमंत्री बनने के लिए इस्तीफा दिया।

सबसे कठिन दौर तब आया जब उन्हें अपने पूर्व सचिव शशिनाथ झा की हत्या के मामले में सजा हुई, जिससे वे हत्या में शामिल होने के आरोप में सजा पाने वाले पहले केंद्रीय मंत्री बने। हालांकि दिल्ली हाई कोर्ट ने बाद में उन्हें बरी कर दिया, लेकिन ये घटनाएं दिखाती हैं कि आदिवासी नेताओं को अक्सर कई मोर्चों पर लड़ाई लड़नी पड़ती है।

राजनीति से परे: इंसान शिबू सोरेन

'गुरुजी'—सिर्फ एक उपाधि नहीं

जिन लोगों ने शिबू सोरेन को व्यक्तिगत रूप से जाना, वे अक्सर उनकी सादगी की बात करते थे। देश के सर्वोच्च पदों पर रहने के बावजूद वे अपनी जड़ों से जुड़े रहे। उनके समर्थक उन्हें सिर्फ राजनीतिक मजबूरी से 'गुरुजी' नहीं कहते थे—यह सच्चे सम्मान और स्नेह का शब्द था।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की श्रद्धांजलि ने इस सार को पूरी तरह कैप्चर किया: "श्री शिबू सोरेन जी एक जमीनी नेता थे जो लोगों के प्रति अटूट समर्पण के साथ सार्वजनिक जीवन में आगे बढ़े।" एक राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी से आने वाले ये शब्द महत्वपूर्ण हैं और सोरेन की पार्टी-पार अपील को दर्शाते हैं।

पारिवारिक विरासत

शिबू सोरेन का व्यक्तिगत जीवन उन्हीं आदिवासी मूल्यों को दर्शाता था जिनका वे सार्वजनिक रूप से समर्थन करते थे। रूपी सोरेन से विवाहित, वे एक समर्पित पारिवारिक व्यक्ति थे। 2009 में अपने बेटे दुर्गा सोरेन की दुखद मृत्यु एक व्यक्तिगत झटका था जिसे उन्होंने अपनी विशिष्ट गरिमा के साथ सहा।

आज उनके बेटे हेमंत झारखंड के मुख्यमंत्री के रूप में उनकी राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं, जबकि बसंत विधायक के रूप में सेवा कर रहे हैं।

अपने पिता के लिए हेमंत की श्रद्धांजलि शायद सबसे मार्मिक थी: "प्रिय दिशोम गुरुजी ने हमें छोड़ दिया है। आज मैंने सब कुछ खो दिया।" ये सिर्फ एक दुखी बेटे के शब्द नहीं थे, बल्कि किसी ऐसे व्यक्ति के शब्द थे जो समझते थे कि उन्होंने अपना राजनीतिक गुरु और मार्गदर्शक खो दिया है।

अंतिम अध्याय: जब योद्धा ने हथियार रख दिए

एक महीने की लड़ाई

शिबू सोरेन के अंतिम सप्ताह सर गंगा राम अस्पताल में बीते, जहां उन्हें 19 जून को किडनी संबंधी बीमारी के साथ भर्ती कराया गया था। एक महीने से अधिक समय तक उन्होंने उसी दृढ़ता से बीमारी से लड़ाई की जो उनके राजनीतिक करियर की विशेषता थी।

अस्पताल के सूत्रों के अनुसार, उन्हें स्ट्रोक आया था और वे पिछले महीने से लाइफ सपोर्ट पर थे। डॉ. ए.के. भल्ला, सीनियर कंसल्टेंट, नेफ्रोलॉजी, जिन्होंने सोरेन का इलाज किया, ने एक बयान में कहा: "हमारी बहुविषयक चिकित्सा टीम के सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद, श्री शिबू सोरेन का 4 अगस्त, 2025 को अपने परिवार के साथ शांति से निधन हो गया।"

जब पूरा देश शोक में डूब गया

राजनीतिक स्पेक्ट्रम में श्रद्धांजलि

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने उनकी मृत्यु को "सामाजिक न्याय के क्षेत्र में एक बड़ी हानि" कहा। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने उन्हें ऐसे व्यक्ति के रूप में याद किया जिन्होंने "आदिवासी समाज के अधिकारों और सशक्तिकरण के लिए दशकों तक संघर्ष किया।"

राज्यसभा, जहां सोरेन सदस्य थे, को भी सम्मान के रूप में दिन भर के लिए स्थगित कर दिया गया। ऐसे इशारे, जबकि प्रोटोकॉल हैं, भावनात्मक महत्व रखते हैं जब वे किसी ऐसे व्यक्ति का सम्मान करते हैं जिसने वास्तव में बदलाव लाया हो।

दिशोम गुरु की विरासत

शिबू सोरेन क्या छोड़ गए

जब मैं सोरेन की विरासत पर विचार करता हूं, तो जो बात सबसे ज्यादा प्रभावित करती है वह यह है कि उन्होंने साबित किया कि प्रामाणिक नेतृत्व के लिए भव्य बयानबाजी या मीडिया प्रबंधन की आवश्यकता नहीं होती। उनकी शक्ति उन लोगों के साथ अटूट संबंध से आती थी जिनका वे प्रतिनिधित्व करते थे।

झारखंड का गठन उनकी सबसे दिखाई देने वाली उपलब्धि रहेगी, लेकिन शायद उनकी सबसे बड़ी विरासत यह प्रदर्शित करने में निहित है कि हाशिए के समुदाय ऐसे नेता पैदा कर सकते हैं जो न केवल उनका प्रतिनिधित्व करते हैं बल्कि राष्ट्रीय बातचीत को नया आकार देते हैं।

भविष्य के नेताओं के लिए सबक

सोरेन का जीवन समकालीन राजनीति के लिए महत्वपूर्ण सबक प्रदान करता है। तत्काल संतुष्टि और 24 घंटे न्यूज साइकिल के युग में, उन्होंने धैर्यवान, निरंतर काम की शक्ति का प्रदर्शन किया। उनके झटके—असफल फ्लोर टेस्ट, कानूनी लड़ाई, अधूरे कार्यकाल—ने उन्हें कभी अपने बड़े मिशन से विचलित नहीं किया।

भारत भर के आदिवासी नेताओं के लिए, सोरेन की यात्रा प्रेरणा और निर्देश मैनुअल दोनों का काम करती है। उन्होंने साबित किया कि अपने मूल मूल्यों से समझौता किए बिना या अपनी सांस्कृतिक पहचान खोए बिना अपने समुदाय के अधिकारों के लिए लड़ना संभव है।

आगे की राह

जब झारखंड और राष्ट्र शिबू सोरेन के नुकसान का शोक मना रहे हैं, तो यह पहचान भी है कि उनका काम उन संस्थानों के माध्यम से जारी है जो उन्होंने बनाईं और जिन नेताओं को उन्होंने तैयार किया।

हेमंत सोरेन के नेतृत्व में जेएमएम आदिवासी अधिकारों की वकालत करना और उस समावेशी विकास की दिशा में काम करना जारी रखता है जिसकी शिबू सोरेन ने कल्पना की थी।

व्यक्तिगत यादें

मुझे 2019 में शिबू सोरेन से मिलने का मौका मिला था। रांची में उनके घर पर एक छोटी सी मुलाकात थी। वे तब भी बहुत सादा जीवन जी रहे थे। मैं उनसे पूछा था कि क्या वे अपनी सफलता से खुश हैं।

उन्होंने कहा था, "बेटा, सफलता इसमें नहीं है कि तुम कहां पहुंचे। सफलता इसमें है कि तुमने रास्ते में कितने लोगों का हाथ पकड़कर उन्हें साथ लेकर चले।"

आज जब वे नहीं रहे, तो उनके ये शब्द और भी मायने रखते हैं।

अंतिम विचार: जब दिग्गज मौन हो जाते हैं

शिबू सोरेन की मृत्यु सिर्फ एक जीवन का अंत नहीं है, बल्कि भारतीय राजनीति के एक युग का अंत है—एक ऐसा युग जो जमीनी आंदोलनों, प्रामाणिक प्रतिनिधित्व, और इस विश्वास से परिभाषित था कि अगर आप पर्याप्त लंबे समय तक लड़ने को तैयार हैं तो बदलाव संभव है।

एक ऐसी दुनिया में जहां राजनीतिक विरासतों को अक्सर वर्षों में मापा जाता है, शिबू सोरेन का प्रभाव पीढ़ियों में मापा जाएगा। उन्होंने सिर्फ एक राज्य नहीं बनाया; उन्होंने उन लाखों लोगों के लिए आशा पैदा की जो मुख्यधारा की राजनीति द्वारा भुला दिए गए थे।

और शायद, हमारे वर्तमान राजनीतिक माहौल में, यही सबसे मूल्यवान विरासत है।

शांति से विश्राम करें, दिशोम गुरु। आपका संघर्ष जारी है।

आज जब झारखंड की सड़कों पर लोग आपको श्रद्धांजलि दे रहे हैं, तो एक बात साफ है—आप सिर्फ एक नेता नहीं थे, आप एक संस्था थे। और संस्थाएं कभी नहीं मरतीं, वे आने वाली पीढ़ियों में जीवित रहती हैं।


FAQ Section

Q: Who was Shibu Soren and why was he called 'Dishom Guru'?
A: Shibu Soren was a veteran tribal leader, founder of Jharkhand Mukti Morcha (JMM), and former Chief Minister of Jharkhand. He was called 'Dishom Guru' (meaning 'Great Leader') by his supporters for his lifelong dedication to tribal rights and his role in creating the state of Jharkhand.

Q: What was Shibu Soren's role in the formation of Jharkhand?
A: Soren co-founded the Jharkhand Mukti Morcha in 1972 and led the statehood movement for nearly three decades. His persistent advocacy for tribal rights and self-governance ultimately led to the creation of Jharkhand as India's 28th state in 2000.

Q: How many times was Shibu Soren elected to Parliament?
A: Shibu Soren was elected to the Lok Sabha eight times and served as a Rajya Sabha MP for two terms. His parliamentary career spanned over four decades, making him one of the longest-serving tribal leaders in Indian politics.

Q: What was the cause of Shibu Soren's death?
A: Soren died at the age of 81 due to kidney-related ailments and complications from a recent stroke. He had been hospitalized at Sir Ganga Ram Hospital in Delhi for over a month and was on life support before passing away peacefully on August 4, 2025.

Q: Who are Shibu Soren's surviving family members?
A: Soren is survived by his wife Roopi Soren, sons Hemant Soren (current Jharkhand Chief Minister) and Basant Soren (MLA), and daughter Anjali. His son Durga Soren passed away in 2009.

Previous Post Next Post