जब बेटे ने पिता को अंतिम विदाई दी: हेमंत सोरेन के आंसुओं में छुपी एक पूरी सभ्यता की कहानी

कभी-कभी शब्द छोटे पड़ जाते हैं जब हम किसी ऐसे जीवन का सार व्यक्त करने की कोशिश करते हैं जिसने लाखों लोगों को छुआ हो। यही कुछ हुआ जब झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने अपने पिता शिबू सोरेन के लिए एक भावनात्मक श्रद्धांजलि लिखी। 81 साल की उम्र में इस महान आदिवासी नेता की मृत्यु के बाद जो कुछ सामने आया, वह सिर्फ एक बेटे का दुख नहीं था—यह एक ऐसे व्यक्ति के जीवन का प्रमाण था जिसकी उपस्थिति को "जंगल जैसी छांव" कहा गया जो हजारों लोगों को तपती धूप और अन्याय से बचाती थी।

4 अगस्त 2025 की सुबह जब नई दिल्ली के सर गंगा राम अस्पताल में शिबू सोरेन ने अंतिम सांस ली, तो एक युग का अंत हुआ। लेकिन हेमंत के शब्दों के माध्यम से हमें उस व्यक्ति की गहरी व्यक्तिगत और राजनीतिक विरासत की झलक मिलती है जिसे लोग 'दिशोम गुरु' कहते थे—एक ऐसा खिताब जो किसी संसद द्वारा नहीं दिया गया या किसी किताब में नहीं लिखा गया, बल्कि झारखंड के लोगों के दिलों से निकला था।

'दिशोम गुरु' के पीछे का इंसान

जब छोटे हेमंत ने एक बार अपने पिता से पूछा था कि लोग उन्हें 'दिशोम गुरु' क्यों कहते हैं, तो शिबू सोरेन का जवाब बेहद सरल लेकिन गहरा था: "क्योंकि बेटा, मैंने सिर्फ उनके दर्द को समझा और उनकी लड़ाई को अपनी बनाया।"

संताली भाषा में 'दिशोम' का मतलब समाज या समुदाय होता है, जबकि 'गुरु' का अर्थ है वह जो रास्ता दिखाता है। यह महज एक राजनीतिक उपाधि नहीं थी—यह उस व्यक्ति की पहचान थी जो बेआवाज़ लोगों की आवाज़ बना था।

मैं जब इस कहानी को लिख रहा हूं, तो मुझे 1944 में आज के झारखंड के छोटे से गांव नेमरा में जन्मे उस बच्चे की याद आती है जो गरीबी से राजनीति के शिखर तक पहुंचा। उनका बचपन तब त्रासदी से भर गया जब महज 13 साल की उम्र में साहूकारों ने उनके पिता की हत्या कर दी। उस दिन एक छोटा बच्चा शोषण के खिलाफ जीवनभर लड़ने वाला योद्धा बन गया।

बेटे की नज़र से: एक राजनीतिक दिग्गज का व्यक्तिगत पहलू

हेमंत सोरेन की श्रद्धांजलि अपने पिता के उन पहलुओं को उजागर करती है जिन्हें जनता ने शायद ही कभी देखा हो। उन्होंने लिखा: "मैं उन्हें सिर्फ 'बाबा' नहीं कहता था। वे मेरे मार्गदर्शक थे, मेरे विचारों की जड़ थे, और वह जंगल जैसी छांव थे जो हजारों-लाखों झारखंडियों को सुरक्षा देती थी।"

ये शब्द एक ऐसे व्यक्ति की तस्वीर खींचते हैं जो सार्वजनिक जिम्मेदारी का बोझ उठाते हुए भी एक पिता और गुरु की भूमिका निभाता रहा।

झारखंड के मुख्यमंत्री ने अपने पिता को "खेतों में काम करते, लोगों के बीच बैठते, सिर्फ भाषण नहीं देते बल्कि लोगों के दुःख को जीते हुए" देखने की बात कही। यह उनकी प्रामाणिक नेतृत्व शैली की झलक देता है। यह दिखावे की राजनीति नहीं थी—यह जिया गया अनुभव था जो जनता के दिल में गूंजता था।

वह निडर योद्धा जो कभी नहीं झुका

हेमंत की श्रद्धांजलि का शायद सबसे प्रभावशाली हिस्सा अपने पिता की निडरता के बारे में था। उन्होंने याद किया: "मैं डरता था, लेकिन बाबा कभी नहीं डरे। वे कहते थे: 'अगर अन्याय के खिलाफ खड़ा होना अपराध है, तो मैं बार-बार अपराधी बनूंगा।'"

यह दर्शन शिबू सोरेन के पूरे राजनीतिक करियर को परिभाषित करता था, जो चार दशकों तक फैला था और जिसमें लोकसभा के आठ कार्यकाल शामिल थे।

मैं उनके संघर्ष की कहानी सोचता हूं तो पाता हूं कि सोरेन का राजनीतिक सफर कतई आसान नहीं था। उन्होंने कई कानूनी चुनौतियों का सामना किया और अपने करियर के दौरान कई विवादास्पद मामलों में शामिल रहे। फिर भी, उनके बेटे की श्रद्धांजलि इस बात पर जोर देती है कि इन संघर्षों ने कभी भी आदिवासी अधिकारों और सामाजिक न्याय के प्रति उनके पिता की प्रतिबद्धता को कम नहीं किया।

गांव के लड़के से राज्य के निर्माता तक

शिबू सोरेन का एक ऐसे गांव के लड़के से, जिसने साहूकारों के हाथों अपने पिता को खोया था, झारखंड राज्य के शिल्पकार बनने तक का सफर दृढ़ता और दृष्टि की कहानी है। उन्होंने 1972 में झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) की स्थापना की, शुरुआत में यह साहूकारों और बाहरी लोगों द्वारा आदिवासी समुदायों के शोषण के खिलाफ एक आंदोलन था।

1980 से 2000 तक, सोरेन ने झारखंड राज्य आंदोलन का नेतृत्व किया। उनके प्रयासों का चरम 15 नवंबर 2000 को हुआ जब अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के तहत बिहार से अलग करके झारखंड एक अलग राज्य बना। यह उपलब्धि स्वतंत्र भारत में सबसे महत्वपूर्ण आदिवासी राजनीतिक जीत में से एक है।

पसीने और आवाज़ में लिखा संघर्ष का इतिहास

हेमंत ने अपने पिता के संघर्ष का सार बखूबी व्यक्त किया: "कोई किताब बाबा के संघर्ष को नहीं समझा सकती। वह उनके पसीने में था, उनकी आवाज़ में था, और उनकी चप्पलों से ढकी फटी एड़ियों में था।"

यह चित्रण सोरेन के नेतृत्व की जमीनी प्रकृति को दर्शाता है—वे कोई ऐसे राजनेता नहीं थे जो पार्टी के पदों से उठे हों, बल्कि एक ऐसे नेता थे जो संघर्ष की मिट्टी से निकले थे।

झारखंड के लिए राज्य का दर्जा हासिल करने के बाद भी सोरेन ने अपनी विनम्रता बनाए रखी। जैसा कि हेमंत ने याद किया: "जब झारखंड राज्य बना, तो उनका सपना पूरा हुआ, लेकिन उन्होंने कभी सत्ता को उपलब्धि नहीं माना। वे कहते थे: 'यह राज्य मेरे लिए कोई सिंहासन नहीं है, यह मेरे लोगों की पहचान है।'"

अंतिम अध्याय: बेटे का पिता से वादा

हेमंत सोरेन की श्रद्धांजलि एक गंभीर वादे के साथ समाप्त हुई जो उनके पिता के मिशन की निरंतरता को दर्शाता है: "आपका देखा गया सपना अब मेरा वादा है। मैं झारखंड को झुकने नहीं दूंगा; आपके नाम को मिटने नहीं दूंगा। आपका संघर्ष अधूरा नहीं रहेगा।"

ये शब्द बताते हैं कि जबकि शिबू सोरेन की भौतिक उपस्थिति चली गई हो, उनकी राजनीतिक और वैचारिक विरासत उनके बेटे के माध्यम से जारी रहेगी।

इस क्षण का भावनात्मक बोझ तब दिखा जब हेमंत ने सोशल मीडिया पर पोस्ट किया: "सम्मानीय दिशोम गुरुजी ने हम सबको छोड़ दिया है... आज मैं 'शून्य' हो गया हूं।" 'शून्य' शब्द का इस्तेमाल—जिसका मतलब खालीपन या रिक्तता है—न केवल एक बेटे बल्कि उस पूरे समुदाय के गहरे नुकसान की भावना को शक्तिशाली तरीके से व्यक्त करता है जिसे सोरेन के नेतृत्व में आशा और पहचान मिली थी।

व्यक्तिगत यादें जो दिल छू जाती हैं

जब मैं हेमंत की श्रद्धांजलि पढ़ता हूं, तो मुझे उन छोटी-छोटी बातों का एहसास होता है जो एक पिता-पुत्र के रिश्ते को परिभाषित करती हैं। हेमंत ने बताया कि कैसे उनके पिता कहते थे: "बेटा, राजनीति में आदमी का असली चेहरा दिखता है। कुछ लोग सत्ता के लिए अपनी आत्मा बेच देते हैं, लेकिन हमें अपने लोगों की आत्मा बचानी है।"

यह वह शिक्षा थी जो हेमंत को विरासत में मिली। आज जब वे झारखंड के मुख्यमंत्री हैं, तो उनके हर फैसले में अपने पिता की आवाज़ सुनाई देती है।

एक मिश्रित लेकिन निर्विवाद विरासत

विशेषज्ञ जो सोरेन की विरासत का विश्लेषण करते हैं, वे इसकी जटिलता को स्वीकार करते हैं। प्रसिद्ध समाजशास्त्री वर्जिनियस जैक्सा ने कहा था कि सोरेन का आंदोलन "विशेष रूप से आदिवासी नहीं था। बल्कि इसमें हाशिए के और भी लोग शामिल थे।"

सांस्कृतिक कार्यकर्ता गणेश नारायण देवी ने शायद इसे सबसे अच्छा शब्द दिया: "उन्हें झारखंड की पहचान बनाने वाले के रूप में याद किया जाएगा। वे मुख्य रूप से एक योद्धा थे। वे आदिवासी समुदाय से निकलकर नेतृत्व के स्थान तक पहुंचे। झारखंड जनजातियों के नेता के रूप में और झारखंड की पहचान बनाने में, वे अतुलनीय हैं।"

जारी यात्रा

जैसे-जैसे हेमंत सोरेन अब झारखंड के मुख्यमंत्री के रूप में अपने पिता की राजनीतिक विरासत को आगे ले जा रहे हैं, उनकी भावनात्मक श्रद्धांजलि एक शोकगीत और घोषणापत्र दोनों का काम करती है। यह न केवल पिता और पुत्र के बीच के व्यक्तिगत बंधन को दर्शाती है, बल्कि आदिवासी सशक्तिकरण के प्रति उस गहरी प्रतिबद्धता को भी दिखाती है जिसने सोरेन परिवार की राजनीतिक पहचान को परिभाषित किया है।

एक कहानी जो आज भी जीवित है

आज जब मैं रांची की सड़कों पर घूमता हूं, तो मुझे हर जगह शिबू सोरेन की छाप दिखती है। झारखंड विधानसभा की दीवारों पर उनकी तस्वीरें, आदिवासी युवाओं की आंखों में उनके सपने, और हेमंत सोरेन की हर नीति में उनके पिता के आदर्श।

हेमंत ने अपनी श्रद्धांजलि में एक बात और कही थी: "बाबा कहते थे कि नेता वह नहीं जो लोगों के ऊपर खड़ा हो, बल्कि वह है जो लोगों के साथ खड़ा हो।" आज जब झारखंड के आदिवासी समुदाय के सामने नई चुनौतियां हैं, तो यह सिद्धांत और भी प्रासंगिक हो जाता है।

भविष्य की चुनौतियां

शिबू सोरेन की मृत्यु भारतीय आदिवासी राजनीति में एक युग का अंत है। लेकिन हेमंत के दिल से निकले शब्दों के माध्यम से, हम समझते हैं कि जबकि हजारों लोगों को सुरक्षा देने वाली भौतिक छांव चली गई हो, उस महान वृक्ष की जड़ें झारखंड की पहचान की मिट्टी को पोषित करती रहती हैं।

हेमंत सोरेन के इस वादे में—कि वे अपने पिता का नाम जिंदा रखेंगे और उनका संघर्ष अधूरा नहीं छोड़ेंगे—'दिशोम गुरु' की विरासत आने वाली पीढ़ियों को न्याय और सम्मान की लड़ाई में मार्गदर्शन देती रहेगी।

अंतिम संदेश

जब मैं इस ब्लॉग को समाप्त करता हूं, तो मेरे मन में हेमंत सोरेन के वे शब्द गूंजते हैं: "बाबा, आपने सिखाया था कि सपने वही देखने चाहिए जो सबका भला करें। आपका वह सपना अब मेरी जिम्मेदारी है।"

यह सिर्फ एक बेटे का पिता से वादा नहीं है—यह एक पूरी सभ्यता का भविष्य के प्रति संकल्प है। शिबू सोरेन 'दिशोम गुरु' थे, और उनकी शिक्षा आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उनके जीवनकाल में थी।

जब तक झारखंड की मिट्टी में आदिवासी संस्कृति की खुशबू है, जब तक यहां के जंगलों में पंछियों के गीत हैं, तब तक शिबू सोरेन की आत्मा इस धरती में बसी रहेगी।

FAQ Section

Q: What does 'Dishom Guru' mean and why was Shibu Soren called by this title?
A: 'Dishom Guru' means 'guide of the society' in Santali language, where 'Dishom' means society/community and 'Guru' means guide or teacher. Shibu Soren earned this title from the tribal people because he understood their pain and made their struggles his own.

Q: How did Shibu Soren die and what was his health condition?
A: Shibu Soren died at 81 on August 4, 2025, at Sir Ganga Ram Hospital in Delhi after prolonged illness. He had been undergoing treatment for kidney-related problems since June 19, 2025, and had suffered a stroke. He was on life support for the last month before his death.

Q: What was Shibu Soren's role in Jharkhand's statehood movement?
A: Shibu Soren was the key leader of the Jharkhand statehood movement from 1980 to 2000. He founded the Jharkhand Mukti Morcha (JMM) in 1972 and led the decades-long struggle that culminated in Jharkhand becoming a separate state on November 15, 2000.

Q: How many times was Shibu Soren elected to Parliament and as Chief Minister?
A: Shibu Soren was elected to the Lok Sabha eight times and served two terms in the Rajya Sabha during his 40-year political career. He served as Jharkhand's Chief Minister three times, though he couldn't complete any full term due to political instability.

Q: What is Hemant Soren's current political position?
A: Hemant Soren is currently the Chief Minister of Jharkhand and leads the Jharkhand Mukti Morcha (JMM), continuing his father's political legacy.

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