जब मैंने पहली बार इस मामले के बारे में सुना था, तो मुझे लगा था कि यह सिर्फ एक और राज्य और केंद्र के बीच की राजनीतिक खींचतान है। लेकिन जब 8 अप्रैल 2025 को सुप्रीम कोर्ट का 415 पन्नों का फैसला आया, तब मुझे एहसास हुआ कि यह भारतीय संघवाद की दिशा बदलने वाला ऐतिहासिक पल था।
आज मैं आपको इस पूरी कहानी के साथ-साथ इसके दूरगामी प्रभावों के बारे में बताना चाहता हूँ। यह केवल तमिलनाडु की जीत नहीं है - यह भारत के हर राज्य के लिए एक नई शुरुआत है।
कहानी की शुरुआत: 10 बिल और एक अड़ियल राज्यपाल
कल्पना कीजिए कि आपका कोई काम महीनों से किसी अफसर की मेज पर धूल फांक रहा है। बिल्कुल यही हाल था तमिलनाडु के उन 10 बिलों का जो 2020 से राज्यपाल आर.एन. रवि के दफ्तर में पड़े थे।
मुझे याद है जब यह मामला पहली बार सुर्खियों में आया था। तमिलनाडु की विधानसभा ने इन बिलों को दोबारा पास किया था, लेकिन राज्यपाल ने इन्हें राष्ट्रपति के पास भेज दिया। यह एक ऐसी चाल थी जिसे संविधान विशेषज्ञ "पॉकेट वीटो" कहते हैं - यानी बिना मना किए बिल को अटका देना।
क्या होता है जब लोकतंत्र में देरी होती है?
इस देरी का सबसे बड़ा नुकसान यह था कि तमिलनाडु के विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति के नियम अटके पड़े थे। शिक्षा व्यवस्था में अनिश्चितता का माहौल था। निवेशक भी इंतजार कर रहे थे कि आखिर कानून बनेगा कब?
सुप्रीम कोर्ट का तूफानी फैसला
जब सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल करके इन सभी बिलों को "स्वीकृत मान लिया," तो मैं सच कहूं तो चौंक गया था। यह कोई सामान्य फैसला नहीं था - यह भारतीय न्यायपालिका की एक बेहद साहसिक पहल थी।
राज्यपाल की शक्तियों पर लगी पाबंदी
कोर्ट ने साफ-साफ कह दिया कि अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के पास केवल तीन विकल्प हैं:
- बिल पर हस्ताक्षर करना
- बिल वापस भेजना
- बिल को राष्ट्रपति के पास भेजना
लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अब इसके लिए समय सीमा तय कर दी गई है:
राज्यपाल का काम | समय सीमा |
---|---|
मंत्रिमंडल की सलाह पर स्वीकृति/आरक्षण | 1 महीना |
सलाह के विपरीत बिल वापसी | 3 महीने |
दोबारा आए बिल पर स्वीकृति | 1 महीना |
अनुच्छेद 142: न्यायपालिका की महाशक्ति
जब मैंने अनुच्छेद 142 के बारे में पढ़ा, तो मुझे लगा कि यह भारतीय संविधान का सबसे शक्तिशाली हथियार है। यह सुप्रीम कोर्ट को "पूर्ण न्याय" के लिए कोई भी आदेश देने की शक्ति देता है।
इस मामले में कोर्ट ने कहा कि चूंकि संवैधानिक व्यवस्था ठप हो गई थी, इसलिए वे इन बिलों को "स्वीकृत मान रहे हैं।" कुछ लोग इसे न्यायिक अतिक्रमण कह रहे हैं, लेकिन मुझे लगता है यह एक जरूरी कदम था।
क्या यह न्यायिक सक्रियता है?
सच कहूं तो, जब मैंने विभिन्न कानूनी विशेषज्ञों की राय पढ़ी, तो मुझे लगा कि यह बहस अभी भी जारी रहेगी। मई 2025 में दाखिल राष्ट्रपति संदर्भ इसी सवाल को उठाता है कि क्या अनुच्छेद 142 के तहत "माना गया स्वीकृति" की शक्ति संवैधानिक सीमाओं के भीतर है।
भारतीय संघवाद पर प्रभाव
यह फैसला केवल तमिलनाडु के लिए नहीं है। पंजाब, केरल, पश्चिम बंगाल जैसे राज्य जो इसी तरह की समस्याओं से जूझ रहे हैं, उनके लिए यह एक रोडमैप है।
संघीय संतुलन की बहाली
मुझे लगता है कि यह फैसला भारत के संघीय ढांचे में संतुलन लाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। अब अनिर्वाचित राज्यपाल चुनी हुई विधानसभा की इच्छा को अनिश्चित काल तक नहीं रोक सकते।
राज्यों के लिए पांच सुनहरी सीख
इस फैसले से राज्य विधानसभाओं को कुछ महत्वपूर्ण सबक मिले हैं जिन्हें मैं आपके साथ साझा करना चाहता हूं:
1. दोबारा पारित करना काम करता है: जब कोई बिल वापस आए, तो उसे बिना बदलाव के दोबारा पास करें। राज्यपाल को एक महीने में स्वीकार करना ही होगा।
2. हर देरी का रिकॉर्ड रखें: कोर्ट देरी और मौनता की अवधि को देखकर नीयत का फैसला करती है।
3. मैंडमस का इस्तेमाल करें: समय सीमा पूरी होने पर तुरंत मैंडमस के लिए कोर्ट जाएं।
4. बिल सही तरीके से तैयार करें: राज्यपाल के पास अब केवल संवैधानिक आधार पर ही बिल को राष्ट्रपति के पास भेजने का विकल्प है।
5. जनमत का साथ लें: तमिलनाडु ने पारदर्शिता बरतकर जनता का समर्थन हासिल किया।
सरकारिया और पुंछी आयोग की सिफारिशें
जब मैंने इस मामले पर गहराई से रिसर्च की, तो मुझे पता चला कि सरकारिया आयोग (1988) और पुंछी आयोग (2010) दोनों ने राज्यपाल के फैसलों के लिए समय सीमा तय करने की सिफारिश की थी। आज जाकर उन सिफारिशों को न्यायिक मान्यता मिली है।
दशकों पुरानी सिफारिशों का अमल
यह दिखाता है कि कभी-कभी बदलाव में समय लगता है, लेकिन न्याय की जीत होकर ही रहती है। मुझे खुशी है कि आखिरकार इन आयोगों की दूरदर्शिता को मान्यता मिली।
भविष्य की चुनौतियां
अब सवाल यह है कि आगे क्या होगा? राष्ट्रपति संदर्भ का जवाब आने के बाद ही पता चलेगा कि सुप्रीम कोर्ट की इस व्याख्या को कितनी मजबूती मिलती है।
राज्यपालों के लिए नई वास्तविकता
मुझे लगता है कि अब राज्यपालों को अपनी भूमिका को लेकर ज्यादा सावधान रहना होगा। देरी करना अब जोखिम भरा रणनीति हो गई है।
अक्सर पूछे जाने वाले सवाल (FAQ)
क्या राज्यपाल अब भी बिल को चुपचाप दफना सकता है?
बिल्कुल नहीं। कोर्ट ने साफ कह दिया है कि "पॉकेट वीटो" अब मान्य नहीं है। अनुच्छेद 200 में "घोषित करेगा" शब्द निष्क्रियता के लिए कोई जगह नहीं छोड़ता।
अगर राज्यपाल को लगे कि बिल असंवैधानिक है तो क्या करे?
पहली बार में वह इसे राष्ट्रपति के पास भेज सकता है। लेकिन अगर विधानसभा ने बिल को दोबारा वैसा ही पास किया, तो उसे एक महीने में स्वीकार करना होगा।
क्या राष्ट्रपति की भी समय सीमा है?
हां, राष्ट्रपति के पास आरक्षित बिलों पर फैसला करने के लिए तीन महीने का समय है।
अनुच्छेद 142 कैसे काम आया?
यह सुप्रीम कोर्ट को "पूर्ण न्याय" सुनिश्चित करने के लिए कोई भी आदेश देने की शक्ति देता है। यहां इसने संवैधानिक गतिरोध को तोड़ने के लिए बिलों को "स्वीकृत माना"।
क्या यह न्यायिक सक्रियता है?
कोर्ट का कहना है कि उसने केवल संवैधानिक तात्कालिकता को लागू किया है। फिर भी, भविष्य की संविधान पीठ राष्ट्रपति संदर्भ के बाद अनुच्छेद 142 की बाहरी सीमाओं पर दोबारा विचार कर सकती है।
सरकारिया और पुंछी आयोग का क्या कहना था?
दोनों आयोगों ने राज्यपाल के फैसलों के लिए समय सीमा और मुख्यमंत्री से परामर्श की सिफारिश की थी। कोर्ट की समय सीमा इन्हीं सुझावों को दर्शाती है।
क्या राज्यपालों को अब हटाया जा सकता है?
हालांकि फैसला दंड का प्रावधान नहीं करता, बार-बार नियमों का उल्लंघन न्यायिक जांच और राजनीतिक विरोध को आमंत्रित करेगा।
इस फैसले का दूसरे राज्यों पर क्या प्रभाव होगा?
पंजाब, केरल, पश्चिम बंगाल जैसे राज्य जो इसी तरह के विवादों में फंसे हैं, अब इस फैसले का सहारा ले सकते हैं।
निष्कर्ष: एक नए युग की शुरुआत
जब मैं इस पूरे मामले पर नजर डालता हूं, तो मुझे लगता है कि यह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ है। राज्यपाल की "चुप्पी की राजनीति" अब इतिहास की बात हो गई है।
यह फैसला दिखाता है कि हमारी न्यायपालिका संविधान की रक्षा के लिए कितनी प्रतिबद्ध है। चाहे कोई भी राजनीतिक दल सत्ता में हो, संवैधानिक व्यवस्था को बनाए रखना सबसे पहले आता है।
मुझे उम्मीद है कि यह फैसला न केवल तमिलनाडु बल्कि पूरे देश में सहकारी संघवाद को मजबूत बनाएगा। अब राज्य सरकारों को पता है कि उनके कानून अनिश्चित काल तक नहीं अटक सकते।
आखिर में, यह वाकई में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए गर्व की बात है कि हमारी संस्थाएं मजबूत हैं और संविधान की रक्षा में एकजुट हैं। यह फैसला आने वाली पीढ़ियों के लिए एक मिसाल बनेगा।